लम्हे-फुरसत के
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तप्त शब्दो की कठिन माला पिरोना चाहता हूँ
कष्ट मन मे है अपरिमित फिर से रोना चाहता हूँ
वायु मे उद्वेग है और हलचलो मे है समन्दर
फूट जाने दे लहर खुद को भिगोना चाहता हूँ
प्रेम मे होकर के अर्पित स्वयं मे होकर समर्पित
तीव्र उत्कंठा है अब फिर से भटकना चाहता हूँ
वेदना स्वीकार कर सर्वस्व अपना त्यागकर
अग्नि के संसर्ग मे फिर से सिमटना चाहता हूँ
दीप बनकर दीप्त होकर और कठिन संकल्प लेकर
वेदना मे जलके फिर से प्रीत पाना चाहता हूँ
तुम मेरे शब्दो मे ‘सौरभ’ तुम मेरे गीतो मे ‘सौरभ’
खुद को खुद से जोड़कर अब पूर्ण होना चाहता ह
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