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गज़ल

लम्हे-फुरसत के
लम्हे-फुरसत के
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सब उठाकर चल दिये पर छोड़कर कुछ आ रहे है
रोशनी तो हो गयी अपना ही घर सुलगा रहे है
मिल रही है चन्द खुशियाँ मिट रहे अरमान है
ख्वाब की लालच मे हम सच्चाईयाँ झुठला रहे है

पा के खोना खो के पाना ये
तो चलता ही रहेगा
खो दिया कुछ इसलिये खुद को भी खोने जा रहे है
मोम के घर मे रहा है कौन दिल मे आग रख के
पत्थरो का इक मकाँ ये सोचकर बनवा रहे है

है कि लानत जिन्दगानी गर जिये तेरे लिये
हम किसी उम्मीद मे अरसे से जीते जा रहे है
राख बनकर फिर किसी के काम क्या आ पायेगे
जल रहे है खुद के हाथो और फिर बुझवा रहे है

जी लिया है जी रहे है और जीते ही रहेगे
लग रहा हरबार है ये लौटकर वो आ रहे है
ऐक भी गुल न मिलेगा गुलशनो के पास अब
पतझड़ो की रुत है “सौरभ” सब ही टूटे जा रहे है

(मेरी कलम से @सौरभ मिश्र

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