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लम्हे-फुरसत के
लम्हे-फुरसत के
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( ऐक जिदा आरजू )

ये लम्हे हरदफा आये

मगर पहली दफा ये है

किसी मे जा सिमटने की

थोड़ी सी आरजू भी है

हजारो आरजूये थी हजारो माँग थी रब से

मगर ऐक आरजू ही आज मेरे साथ जिदा है

कोई मिलके बिछड़ता है कोई राहो मे मिलता है

तू मुझसे मिल के न बिछड़े यही फरियाद रब से है

ये दुनिया जानती है हम कभी भी साथ न होगे

मगर तुझमे कहाँ हूँ मै ये मुझमे राज जिदा है

पतंगा जल के मरता है मैने हरबार देखा है

मगर मरकर भी जीने की न जाने क्या अदा है ये

किसी ने उस दीवानी से कभी पूछा नही होगा

कि ऐसे बैठकर रोने की “सौरभ” क्या वजा है ये

मेरी तुरबत पे आके रोज क्यो आँसू बहाता है

मेरी इस नफ्स को देता है जो कैसी सजा है ये

( मेरी कलम से @सौरभ मिश्र )

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