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चलते रहते है

लम्हे-फुरसत के
लम्हे-फुरसत के
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अगर तुमको समझ पाते तो हम बरबाद न होते

तुम्हारी बेवफाई के ये किस्से आम न होते

ये झूठा प्यार ये वादेतुम्हारी आदतो मे है

जो ये मालूम होता हम कभी बदनाम न होते

शहर मे आजकल हमको सभी तन्हा समझते है

कहा मालूम है उनको कि हम महफिल से डरते है

कि अन्जान ने “सौरभ” हमारा दिल नही तोड़ा

ये वो अपने ही थे जिनको कि हम साया समझते है

किसको पता इस प्यार का अंजाम क्या होगा

चले जिस राह पे उस राह का मुकाम क्या होगा

हजारो गम समेटे है हजारो रंज झेले है

किसे मालूम टूटे आईनो का काम क्या होगा

हर ऐक पत्थर हमारी राह का हँसता है हमपर

कि ऐसा क्या है तेरे साथ तू कहता नही है

क्यो इतनी ठोकरे खायी है तूने जिन्दगी मे

चला जाता है फिर भी राह मे रुकता नही है

[ मेरी कलम से सौरभ मिश्र ]

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