लम्हे-फुरसत के
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खामोश रखो खुद को
तुम रहते हो समाज मे
जुर्म के घुन से खोखले
भ्रष्टाचार के दीमक से खाये हुये
मानयताओ से हारे समाज मे
जानकर भी अन्जान
सुनकर भी अनसुना
देखकर भी सब बुराइयो को
चुप रहना पड़ता है
तानाशाही को अत्याचार को
शोषण और दुराचार को
असहायो की गुहार को
दलितो की पुकार को
कौन सुनता है?
इसलिये कहता हू
आवाज उठाओगे या चेतना फैलाओगे
गिरे हुये फूलो सा कुचल दिये जाओगे
इसलिये कहता हू
फूल नही काटा बनो
वरना खामोश………………….
[ मेरी कलम से
सौरभ मिश्र ]
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