लम्हे-फुरसत के
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पुराने और कठोर बरगद के नीचे
देखा पनपते हुये पौधो को
हंसते खिलखिलाते मौसम की बेरुखी से अंजान
मासूम,नरम,कठोर हवा के झोको से अंजान
क्योकि हाथ है उनपर उनके पितामह स्वरुप
उस विशाल बरगद के पेड़ का
जो खड़ा है सदैव तटस्थ
उनकी सुरक्षा मे भुलाकर स्वयं को
अपने अस्तित्व को मिटाकर कर रहा है सुरक्षा
उन उभरते हरे पौधो के अस्तित्व की
ढूढ रहा है अपना बचपन अपनी पहचान
इसलिये कर रहा है सेवा निस्वार्थ
समझकर खुद को बुजुर्ग और उन्हे नादान
दे रहा है सेवादान
[ मेरी कलम से ]
[ सौरभ मिश्र ]
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